शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

रेत

मुट्ठी में रेत भरो तो लगता है कुछ हाथ में आ गया। मगर हासिल का यह सुख कितना क्षणभंगुर होता है ? रेत फिसल जाती है। हमें पता भी नहीं चलता। मुट्ठी फिर खाली की खाली। सपने कम से कम तब तक तो अपने होते हैं जब तक टूटते नहीं। और अपने ? अपने तो सपने में भी अपने नहीं रहते। अपनापन ऐसा क्यों होता है ? रीतता क्या है ? मन! वो भी कितने बेमन से। मन इतना बेचारा क्यों होता है ? जहाँ आसरा चाहता है वहां से दुत्कार दिया जाता है। जहां से दवा की उम्मीद होती है वहां से दर्द मिलता है।

1 टिप्पणी:

  1. मगर हम मुट्ठी में रेत रखे ही क्यों?

    रीतता क्या है ? मन! वो भी कितने बेमन से।
    बेमन से मन का रीतना वाह क्या खूब कहा है.

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