सोमवार, 22 मार्च 2010

स्वागतम पुलकित

४६० घंटे हो गये हैं भैया के अवतरण को। अबकी बार मुझे जरूर लाना। २७६०० सेकेण्ड आप उनके साथ रह लीं। यह वक्फा कम नहीं होता। पुलकित की पुलकन से मैं पुलक उठती हूँ तो आप जो हर पल उसे सहेजती हैं कितना सुख महसूस करती होंगी। मैं जब तक आउंगी तब तो वो मुझे खिलाने लायक हो जायेगा। जिंदगी को समझ पाना कितना मुश्किल होता है। खुद को ही देख लीजिये, खूब परेशां होती हैं, झुंझलाती हैं, रोती हैं, मगर इन सबके बाद जो सुख, महिमा और गौरव मिलता है वह दुनिया की और किसी भी अनुभूति में नहीं है। सागर याद आते हैं ? पुलकित भैया को उनके बारे में बताती हो या नहीं ? ऐसा न हो कि वे आयें तो भैया उन्हें पहचाने भी नहीं। इसे बिलकुल अपने जैसा बनाना, लेकिन अपना सब्र मत देना। समझोतावादी तो बिलकुल भी न बनाना। जी चाहता है इसी पल आपके पास पहुँच जाऊं। काश ऐसा हो पाता। उसे मेरा और सागर का ढेर सारा प्यार देना।