शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

रिश्तों के रूप बदलते हैं

कहाँ से चले थे, कहाँ आ पहुंचे ! कितना कुछ बदल गया। रिश्तों का रूप, गणित, रवायत और शायद हकीकत भी। तुम एक से दो हुईं, अब दो से तीन हो जाओगी। मैं चार से तीन हुआ, तीन से दो हुआ, दो से एक, एक से अधूरा, ... अब तो यह अधूरापन भी तकलीफ नहीं देता। मुझे पता है तुम उतनी खुश नहीं हो जितनी हो सकती थीं। फ़िर भी सृजन से बड़ा कोई सुख नहीं होता। तुमने बड़ी मेहनत और हसरत से जो कृति तैयार की है उसे नायाब बनाओ। इतना नायाब कि जो भी देखे रश्क करे। जीवन में

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