गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
बुधवार, 4 अगस्त 2010
धांसू पिच्चर और आंवले की चटनी
सौरभ द्विवेदी
एकदम झिंटाक पिच्चर है 'थ्री इडियट्स'। सच्ची बोल रहा हूं, रिव्यू पढ़कर फंडे नहीं दे रहा। कल देखकर आया रात 11 बजे वाला शो। ज़िंदगी में पहली बार रेलगाड़ी जित्ती लंबी लाइन लगी थी प्रिया सिनेमा के सामने। खैर, अंदर पहुंचे तो पहली राहत मिली रित्तिक रौशन का ऐड बदला हुआ देखकर। यार, पिछले चार साल से वही पीली मोटरसाइकल से कीचड़ उछाल रहे थे रौशन बाबू। बोले तो कीचड़ के छींटों के कलर से लेकर उनकी टोपी पर लगे पीतल के बटन तक याद हो गए थे। अबकी नया ऐड आया, उतना ही बेवकूफाना, मगर नया, सो कुछ दिन झेला जा सकता है।
खैर, इस दफा पिच्चर की बात करनी है। तो खूब तो हंसी आई और करीना भी फॉर ए चेंज काफी दिनों बाद अपने मैनरिज़म से दूर फ्रेश लग रही थीं। खासतौर पर एक शॉट में कैमरा जब उनके चेहरे पर ज़ूम-इन करता है, तो आहाहाहा क्या होंठ लग रहे थे। जैसे ताज़ा गुलाब की दो पास-पास सिमटी पंखुड़ियों के बीच से ओस की तीन बूंदें झांक रही हों।
आमिर का चर्चा होता है कभी लुक को लेकर, कभी हटकर रोल को लेकर। मैं पूरी संजीदगी से यह कहना चाहता हूं कि आमिर दशक के अभिनेता हैं, नंबर और रेटिंग के सारे जोखिमों को ध्यान में रखकर भी यह ऐलान इसलिए क्योंकि आमिर परदे पर आमिर नहीं रहते।
आमिर अपने पहले ही शॉट में बुदबुदाते हैं, आल इज्ज वेल और आखिरी शॉट तक कहीं भी कुछ भी गड़बड़ नहीं लगता। दिमाग में पिच्चर जाने से पहले लग रहा था कि यार 40 प्लस के हैं, बीटेक स्टूडेंट कैसे दिखेंगे आमिर बाबू। मगर मैं खुश था कि मैं गलत था। ढीली-सी पैंट जिसके पायचे जूतों के सोल से याराना गांठ चुके हैं, टीशर्ट और बेफिक्र कंधे जो बता रहे थे कि फिल्म में बॉडी लैंग्वेज के हिस्से सबसे ज्यादा डायलॉग आते हैं।
शरमन जोशी कहीं से भी हीरो नहीं लगते और हमें सेवंटी एमएम के पर्दे पर अब हीरो देखने भी नहीं। कुछ अपने से दिखते लोग हों यार, जो रोएं तो सच्ची में लगे कि रो रहें, जब डरें तो लगे कि वाकई उनकी चौड़ी हो गई है। खैर शरमन ने बढ़िया काम किया। कैमरा जब उनके नाक के टिप पर बने निशान को दिखाता है, तो उस एक क्षण लगता है कि अब मेकअप बुद्धू बनाने की जुगत में ही नहीं लगा रहता। इसी तरह फिल्म के लास्ट में जब करीना अपने बाप से झगड़ती है तो उनके चेहरे पर मेकअप और आंखों में काजल नहीं होता। तब हमें सुंदर करीना दिखती है आंवले की चटनी की तरह, खट्टी-सी, अच्छी-सी और देखकर वैसा ही लगता है जैसे खट्टे आंवले को खाने के बाद तालू के नीचे और दांत के पीछे होता है, गुदगुदा-सा स्वाद।
खैर, आप भी सोचेंगे, कहां से ये करीना की तारीफ में लिखे ही जा रहा है। बोमन ईरानी ने बढ़िया ऐक्टिंग की। खासतौर पर जीभ को दांतों के बीच में लाकर संवाद अदायगी का तरीका। हालांकि यह नया नहीं है। 'एक रुका हुआ फैसला' में पंकज कपूर भी ऐसे ही डायलॉग बोल रहे थे और खूब जम रहे थे। माधवन की हंसी बहुत प्यारी है, मगर 'रहना है तेरे दिल में' के बाद से उन्होंने अपनी डबल चिन पर ध्यान ही नहीं दिया और हंसी उनकी आंखों से फिसलकर चेहरे के फैट पर चली जाती है। ऐक्टिंग में लेकिन पूरे नंबर।
अब बात असली हीरो लोगों की। सबसे पहले जोशी। इनका पहला नाम याद नहीं आ रहा तो अपने के लिए जोशी ही हैं। क्या कमाल की कहानी लिखी यार तुमने राजकुमार हिरानी के साथ मिलकर। शब्बास। मज़ा आ गया। कमाल कर दित्ता। राजकुमार हिरानी तो हैं ही अनूठे। कभी उनके फोटो गौर से देखी है आपने? मूंछों के ऊपर जो आंखें टिमटिमाती हैं न, उनमें गीलापन और हंसी दोनों एकसाथ दिखते हैं। इसीलिए उनकी फिल्में हंसाती हैं, रुलाती हैं, सिखाती हैं और हां, सिनेमा पर मेरी श्रद्धा को भी जमकर बढ़ाती हैं।
तो अपन ने कल रात पिच्चर देखी और उसे देखने के दौरान वैसा ही फील किया, जैसे मूंछों के शुरुआती निशान आते देख किया था। यार, उस टाइम पिच्चर जाते थे तो लगता था कि स्साला हीरो हीरो नहीं हम हैं, बस वो दुश्मनों से लड़ रहा है और हमें सिलेबस से लड़ना है। टॉप करना है, मेहनत से पढ़ना है और फिर एक दिन फूलों के प्रिंट वाले दुपट्टे को संभालती, हाथों में सुंदर से कड़े को गोल घुमाती और कभी क्लिप हटाकर बाल ठीक करती एक परी हमें भी मिल जाएगी। तो हिंदी सिनेमा हमें सपने देखना सिखाता है, उनमें रंग भरता है और हां, किस्सों की ताकत से रूबरू भी करवाता है।
आपको लग रहा होगा कि इस फिलम के मेसेज पर तो बात की ही नहीं। तो भैया उसके लिए तमाम लोग हैं, जो आपको एजुकेशन सिस्टम पर बताएंगे और तमाम बातें सुझाएंगे। अपन को तो एक बात करनी है और वो है आमिर खान का करीना की बहन की डिलिवरी करवाना। बड़ा नाज़ुक मसला है। स्साला लड़का लोग जब तक खुद बाप नहीं बनते, किसी का फूला पेट या किसी महिला की खराब तबीयत खुसुर-पुसुर या हल्के मज़ाक तक ही सीमित रहती है।
तब तक आप लोग इंडिया के सिनेमा का मजा लीजिए, जो बुद्धू है, लेकिन उतना ही प्यारा भी।
इडियट को हिंदी में बुद्धू ही कहेंगे न।
मुंह से दूर रखो
पर एक स्टडी से पता लगा है कि मोबाइल हैंडसेट कीटाणुओं का बड़ा घर बनते जा रहे हैं। हालत यह है कि टॉइलेट फ्लश के हैंडल से 18 गुना ज्यादा कीटाणु एक आम हैंडसेट में पाए जाते हैं। इस नतीजे पर पहुंचने से पहले ब्रिटिश रिसर्चरों ने कई हैंडसेटों पर रिसर्च की। इनमें से एक चौथाई इतने गंदे पाए गए कि उनमें टीवीसी बैक्टीरिया स्वीकार्य स्तर से 10 गुना ज्यादा पाया गया। टीवीसी या टोटल वायबल काउंट यह बताता है कि किसी भी सैंपल में बैक्टीरिया, यीस्ट जैसे माइक्रो ऑर्गेनिजम कितनी मात्रा में हैं। टीवीसी का ज्यादा लेवल इस बात का सबूत है कि व्यक्तिगत साफ-सफाई में भारी लापरवाही बरती जा रही है। यह स्थिति कीटाणुओं को पनपने का बड़ा मौका देती है।
एक हैंडसेट में बैक्टीरिया की तादाद इतनी ज्यादा थी कि यह मोबाइल यूजर के पेट में भीषण दर्द का कारण बन सकता था। रिसर्चरों ने 'विच?' मैगजीन के लिए यह स्टडी की थी। 30 फोनों के सैंपलों से पता लगा कि ब्रिटेन में इस्तेमाल हो रहे 6.4 करोड़ मोबाइलों में से 1.4 करोड़ फोनों से यूजर की हेल्थ को नुकसान हो सकता है। स्टडी से जुड़े लीड रिसर्चर जिम फ्रांसिस ने डेली मेल को बताया कि एक मोबाइल पर खतरनाक बैक्टीरिया इतने ज्यादा थे कि उसे स्टरलाइज करना पड़ा। सबसे ज्यादा गंदगी वाले फोन में इंटेरोबैक्टीरिया सेफ्टी लेवल से 39 गुना ज्यादा पाए गए। इंटेरोबैक्टीरिया बैक्टीरिया का ऐसा गुप है जो इंसान और जानवरों की निचली आंतों में रहता है। फोन में फूड पॉइजनिंग से जुड़े बैक्टीरिया और कोली जैसे कीड़े भी मिले। विच मैगजीन के मुताबिक, कीटाणु आपके हाथों में पनपते हैं और फोन पकड़ने पर वे हैंडसेट में चले जाते हैं। इसके बाद वे बार-बार हैंडसेट पकड़ने पर हाथों में आते रहते हैं। लोगों को चाहिए कि वे व्यक्तिगत साफ-सफाई का ख्याल रखें और जिन्हें भी फोन पकड़ाएं उन्हें भी सफाई का ध्यान दिलाएं। इससे पहले इसी मैगजीन ने पता लगाया था कि कुछ कंप्यूटर कीबोर्ड में टॉइलेट की सीट से भी ज्यादा खतरनाक बैक्टीरिया रहते हैं।
रविवार, 18 जुलाई 2010
कायम रहे ये मोहब्बत !
शनिवार, 17 जुलाई 2010
व्हिच थिंग इस मिसिंग ?
कभी तो जनोगी ?
सबहिं नचावत राम गुसाईं
शुक्रवार, 16 जुलाई 2010
मैं नासमझ
बुधवार, 14 जुलाई 2010
आई लव यू मम्मा
मंगलवार, 13 जुलाई 2010
मेरा साया साथ होगा
ज़ुल्म सह के भी ज़ालिम की मदद होती है।
यकीनन आपको इस पर यकीन नहीं है..... देवता कभी ज़ालिम होते ही नहीं हैं। वे तो सदा-सर्वदा महान ही होते हैं। आपका देवता भी ऐसे ही महान लोगों में शुमार है। मैं गलत हूँ....घर वाले गलत हो सकते हैं लेकिन देवता गलत नहीं हो सकता। वो तो बहुत मासूम है...बहुत भोला... । जो बातें उसे ठेस पहुंचाती हैं वे अंततः आपको भी तकलीफ देने लगती हैं। उसका दुश्मन आपका दुश्मन। आपके दोस्त तो आपके दुश्मन हैं ही। चलो ऐसे ही सही। चल के देख लो। ज़हां तक चल सको .... मुबारक ! जब राहें हमवार न रहें....जब देवता का दैत्य सर चढ़कर बोलने लगे .... जब किसी अपने की जरूरत महसूस हो ....तब...मुझे याद भी मत करना...मैं तुम्हारे पास ही हूँ...पास भी और साथ भी। तू ज़हां-ज़हां चलेगी.....मेरा साया साथ होगा।
अच्छा हुआ जो आपने सपने चुरा लिए
शरण गीता की हो, ईश्वर की हो या अपने ही गढ़े गये किसी मिथक की। शरणम गच्छामि होते ही हम अपने नहीं रहते। असल तकलीफ जो है वो अपने न रहने की ही है। अपने रहे नहीं ... दूसरे के हुए नहीं ! त्रिशंकु होकर अटक गये कहीं। कहाँ ? पता नहीं। सोंपना चाहा किसी को ...... लेकिन ग्रहण के बिना अर्पण नहीं होता। अब सब से पहले ग्रहीता को तलाशिये। है कोई ? नहीं ? तो ये फालतू के पचड़े छोडिये... जीवन को अपनी गति से प्रवाहित होने दीजिये....अंततः वह अपनी गति को प्राप्त कर ही लेगा। कितना आसान फंडा है ! है न ? काश ऐसा होता। हम सबको अवसर अवश्य मिलता है। मुझे भी मिले। खूब मिले। खुद पर घमंड हो गया....इतराने लगा....जिंदगी में ऐसे लोग भी मिले जिन्हें यह इतराना भला लगता था। यही भारी गडबडी हो गयी। आवक में इतना भूला कि जावक को देखा ही नहीं। जब देखा तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। कोई चारा न था। बे-चारा हो गया. बेचारगी बहुत बुरी चीज़ है। मेरा नसीब कि ये बुरी चीज़ मेरे हिस्से थोक में आई है।
हो सकता है ये सच न हो...पर मैं ऐसा मानता हूँ कि मैं मूलतः उत्सवधर्मी और स्वप्नजीवी हूँ। अब मेरी दिक्कत समझो.... कोई भी उत्सव अपनों के बिना मुकम्मल नहीं होता। अपने अचानक विराने हो गये। जुडाव का कोई बारीक सा तार है भी तो वह तंतुओं को झनझनाता नहीं है....कशिश पैदा नहीं करता....उद्दाम नदी की तरह मिलने को आकुल नहीं होता। यानी उत्सव नहीं हो सकता। जीने की एक आदत फिनिश्श्श। सपने अलबत्ता अब भी खूब देखता हूँ। यह नितांत निजी शगल है... इसके लिए किसी की जरूरत नहीं होती। क्या होगा ? पूरे ही तो नहीं होंगे...न सही.....जब जिंदगी ही मुकम्मल न हुई तो अधूरे सपनो के साथ रहना क्या मुश्किल ? लेकिन बड़ी गलती हो गयी...मैं लापरवाह था... कोई आया और मेरी सपनो वाली गठरी ही चुरा ले गया। अब क्या करूँ ? न सपने रहे...न अपने रहे....न उत्सव । कैसे कहूँ कि शुभ-हो। वैसे - ' रहते हमारे पास तो ये टूटते ज़रूर/ अच्छा हुआ जो आपने सपने चुरा लिए।
सोमवार, 12 जुलाई 2010
दाल का पानी
कि हमसे दूर हो गये
मुबारकें तुम्हें कि तुम, किसी का नूर हो गये
किसी के इतने पास हो कि हमसे दूर हो गये।
रविवार, 11 जुलाई 2010
अफ़सोस हम न होंगे
मुबारक हो माँ
सोमवार, 31 मई 2010
पिया का घर प्यारा लगे !
बाबुल मेरो नैहर छूटो ही जाय........! मम्मा जा रही हो, हमे भूल मत जाना। बेशक पिया का घर प्यारा लगे पर जहाँ बचपन बीता वो जगह कभी नहीं भूल सकतीं। भैया को ननिहाल कि बहुत यद् आएगी। आपके घर में तो कोई उसे घंटो तक गोद में लेकर खिला भी नहीं सकता। खैर ! तुमने आज पूरे दिन बात नहीं की। चलो माफ़ किया तुम्हारे पिया जो आये थे। मम्मा, अब नई जिंदगी शुरू करो.....अपनी जिंदगी.....अपनी तरह की जिंदगी... जिसको सुहाए, आ जाये....नहीं सुहाए, भाड़ में जाये। करोगी ? नहीं करोगी.......मुझे पता है तुम ऐसा कर ही नहीं सकतीं। कोई बात नहीं तुम जिस में खुश रहो मैं तो उसी में राज़ी... आई लव यूं टू मच मम्मा.....!
शनिवार, 29 मई 2010
आ अब लौट चलें !
उरई प्रवास का कल आखिरी दिन है। कल पापा के साथ हम लोग घर चलेंगे। आप फिर अकेली हो जाएँगी। है न ? यही सच है ? मेरे होने का कोई मतलब नहीं ? ऐसा कब होगा कि मुझे अपने पास पाकर आपको सकल ज़हान अपनी मुट्ठी में लगे। मुझे छूती हो तो पुलकन होती है न ? मुझे बांहों में समेटती हो तो ऐसा नहीं लगता मानो पूरा आसमान मुट्ठी में आ गया हो ? हमारी दुनिया सबसे न्यारी और सबसे प्यारी है माँ...... मैं हूँ ... तुम हो ... पापा हैं ...और क्या चाहिए ? सागर कितने गंदे हैं .... जब देखो बिना बात के मुंह फुला लेते हैं ... अब हम उनसे भी कोई मतलब नहीं रखेंगे ...! ठीक ? चलो अब अच्छी माँ कि तरह मुझे सुलाओ .... सुबह जल्दी उठाना भी तो है ..... । नहीं तो पापा कहेंगे आलसी हो गया है उल्लू का नाती। गुड नाईट ।
बुधवार, 19 मई 2010
पहली पलटी
सोमवार, 3 मई 2010
तुम्हारी कामना
आज रो - रो के कहता है बचा लो मुझको !
मुम्मा, सब कुछ इतना बदल क्यों जाता है ? हम जाना कहीं चाहते हैं, पहुँच कहीं जाते हैं। जो चाहो वो मिलता नहीं। अयाचित जो मिलता है वह अभीष्ट नहीं होता। जो काम्य है वह अप्राप्य है। जो हस्तगत है वह अकम्य है। पा की कामना कुछ भी हो मैं तो नहीं ही हूँ। तुम्हारी कामना का तो पता ही नहीं चलता। तुम अनुपम तो सदा से थीं अब अनुपम मयी भी हो gyi हो। badhai.
गुरुवार, 29 अप्रैल 2010
मुझे भी लाओ न !
सोमवार, 22 मार्च 2010
स्वागतम पुलकित
शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010
आप तो ऐसी न थीं
सोमवार, 1 फ़रवरी 2010
सोचना तो सही!
शुक्रवार, 22 जनवरी 2010
आओ हम जश्न मनाएं!
गुरुवार, 21 जनवरी 2010
आई लव यूं !
मंगलवार, 19 जनवरी 2010
त्रासदी
सोमवार, 18 जनवरी 2010
दर्द का रिश्ता !
रविवार, 17 जनवरी 2010
यही सच है !
शुक्रवार, 15 जनवरी 2010
रेत
ऐसा क्यों होता है ?
तुमने मेरी सलामती के लिए सूर्य ग्रहण नहीं देखा। लेकिन टीवी पर तो देखा न? चाँद ने सूरज और धरती के बीच आने में कोई कसर तो नहीं छोड़ी! है न ? चाँद का पूरा वजूद दोनों के बीच में आया तो कितना सुन्दर सोने सा छल्ला बन गया ! सूरज और धरती एक पल के लिए एक-दुसरे की आँख से ओझल नहीं हुए। सच्चा प्यार ऐसा ही होता है। तुम भी तो धरती हो। तुम्हारा चाँद सूरज को इतना कैसे ढक लेता है कि वह तुम्हें दिखाई तक नहीं देता?