मंगलवार, 13 जुलाई 2010

अच्छा हुआ जो आपने सपने चुरा लिए

शरण गीता की हो, ईश्वर की हो या अपने ही गढ़े गये किसी मिथक की। शरणम गच्छामि होते ही हम अपने नहीं रहते। असल तकलीफ जो है वो अपने न रहने की ही है। अपने रहे नहीं ... दूसरे के हुए नहीं ! त्रिशंकु होकर अटक गये कहीं। कहाँ ? पता नहीं। सोंपना चाहा किसी को ...... लेकिन ग्रहण के बिना अर्पण नहीं होता। अब सब से पहले ग्रहीता को तलाशिये। है कोई ? नहीं ? तो ये फालतू के पचड़े छोडिये... जीवन को अपनी गति से प्रवाहित होने दीजिये....अंततः वह अपनी गति को प्राप्त कर ही लेगा। कितना आसान फंडा है ! है न ? काश ऐसा होता। हम सबको अवसर अवश्य मिलता है। मुझे भी मिले। खूब मिले। खुद पर घमंड हो गया....इतराने लगा....जिंदगी में ऐसे लोग भी मिले जिन्हें यह इतराना भला लगता था। यही भारी गडबडी हो गयी। आवक में इतना भूला कि जावक को देखा ही नहीं। जब देखा तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। कोई चारा न था। बे-चारा हो गया. बेचारगी बहुत बुरी चीज़ है। मेरा नसीब कि ये बुरी चीज़ मेरे हिस्से थोक में आई है।

हो सकता है ये सच न हो...पर मैं ऐसा मानता हूँ कि मैं मूलतः उत्सवधर्मी और स्वप्नजीवी हूँ। अब मेरी दिक्कत समझो.... कोई भी उत्सव अपनों के बिना मुकम्मल नहीं होता। अपने अचानक विराने हो गये। जुडाव का कोई बारीक सा तार है भी तो वह तंतुओं को झनझनाता नहीं है....कशिश पैदा नहीं करता....उद्दाम नदी की तरह मिलने को आकुल नहीं होता। यानी उत्सव नहीं हो सकता। जीने की एक आदत फिनिश्श्श। सपने अलबत्ता अब भी खूब देखता हूँ। यह नितांत निजी शगल है... इसके लिए किसी की जरूरत नहीं होती। क्या होगा ? पूरे ही तो नहीं होंगे...न सही.....जब जिंदगी ही मुकम्मल न हुई तो अधूरे सपनो के साथ रहना क्या मुश्किल ? लेकिन बड़ी गलती हो गयी...मैं लापरवाह था... कोई आया और मेरी सपनो वाली गठरी ही चुरा ले गया। अब क्या करूँ ? न सपने रहे...न अपने रहे....न उत्सव । कैसे कहूँ कि शुभ-हो। वैसे - ' रहते हमारे पास तो ये टूटते ज़रूर/ अच्छा हुआ जो आपने सपने चुरा लिए।

2 टिप्‍पणियां:

  1. रहते हमारे पास तो ये टूटते ज़रूर...
    अच्छा हुआ जो आपने सपने चुरा लिए


    -बस, यही सोच कर संतोष कर लिजिये, और क्या!!

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